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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६१० ॥
स्त्यानगृद्धि है। इन निद्रादिकरि दर्शनावरणकर्म समानाधिकरणकरि संबंध करना, इनका आधार दर्शनावरणही है । तातें निद्रा दर्शनावरण, निदानिद्रादर्शनावरण इत्यादि कहना ।।
. इहां कोई पूछे, जो, निद्रा तौ पापप्रकृति है अर सोवनेते प्राणीनिकै सुख दीखै है, सो कैसे है? ताका समाधान, जो, निद्रा आवै है सो तो पापहीका उदय है । जातें दर्शन ज्ञान वीर्य आत्माका स्वभाव है ताका घात होय है । बहुरि सोवनेते खेद ग्लानि मिटेंभी है, सो याके लगता सातावेदनीयका उदय है । तथा असाताका उदय मंद पडै है ता• यह निद्रा सहकारी मात्र होय है । तातें यह पाणी सुखभी माने है । परमार्थतें किछु सुख है नाहीं । बहुरि दर्शनावरणके उदयमें चक्षु अचक्षु. के उदयतें तो चक्षु आदि इन्द्रियनिकरि अवलोकन नाहीं होय है । एकेन्द्रिय विकलत्रय होय तब तो इन्द्रियही घाटि होय | बहुरि जाकै नेत्र होय तो बिगडि जाय बहुरि अवधिकेवलदर्शनावरणके उदयतें ते दोऊ दर्शन प्रगट न होय । बहुरि निद्राके उदयतें अंधकार अवस्था है । निद्रा- | || निद्राके उदयतें महा अंधारा है । प्रचलाके उदयतें बैठाही घूमे, नेत्र चले, गात्र चलै, देखताही |
न देखे । प्रचलाप्रचलाके उदयतें अत्यंत घूमै, ऊंघे, कोई शरिमें शलाका आदि चुभावै तोऊ || चेत न होय । स्त्यानगृद्धिका स्वरूप पहला कह्याही था ।
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