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॥ सर्वार्थसिद्धिषचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६०७॥ णका भेद होय है, ऐसें ज्ञानावरणकर्मकी पांच उत्तरप्रकृति जाननी । इहां तर्क करै हैं, जो, अभव्यजीवकै मनःपर्ययज्ञान केवलज्ञानकी शक्ति है कि नाही है.? जो शक्ति है तौ ताकै अभव्यपणाका अभाव है । बहुरि जो शक्ति नाहीं है तौ तिसकै दोऊ ज्ञानका आवरणरूप प्रकृति कहना व्यर्थ है। ताका समाधान, जो, इहां आदेशके वचन कहनेते यह दोष नाहीं है। तहां द्रव्यार्थिकनयके आदेशतें तो अभव्यकै मनःपर्यय केवलज्ञानकी शक्तिका संभव है । बहुरि पर्यायार्थिकनयके आदेश- | करि तिस शक्तिका अभाव कहिये । बहुरि पूछे है, जो ऐसें कहे तो भव्यका अभव्यका भेद कहना || न बणैगा जातें दोऊकै तिनकी शक्तिका सद्भाव कह्या । तहां कहिये, जो शक्तिके सद्भावकी अपेक्षा तौ भव्य अभव्यका भेद नाहीं है व्यक्ति होनेके सद्भाव असद्भावकी अपेक्षा भेद है । जाकै सम्य. ग्दर्शन आदिकी व्यक्ति होयगी सो भव्य कहिये अर जाकै तिनकी व्याक्त न होयगी सो अभव्य
कहिये । जैसे सुवर्णपाषाणमें अंधपाषाण कहिये है, जामें सुवर्ण नीसरैगा सो तो बुरी सुवर्णपाषाण | कहिये । जामें नाही नीसंरैगा सो अंधपाषाण कहिये ऐसें जानना ॥
इहां कोई कहै है, जो, मत्यादिज्ञानकै आवरण कह्या सो ए ज्ञान सद्रूप है कि असद्रूप है ? | जो सद्रूप है तो जो विद्यमान है ताकै आवरण काहेका ? अर जो असद्रूप है तौ विद्यमानही नाही,
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