________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६०६ ॥
॥ पञ्चनवद्व्यष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपञ्चभेदा यथाक्रमम् ॥ ५ ॥
याका अर्थ- मूलप्रकृति आठ कहीं, तिनके भेद पांच नव दोय अठाईस च्यारि बयालीस दोय पांच ए यथाक्रमतें जानने । इहां तर्क, जो, सूत्रमें द्वितीयका ग्रहण करना था, जातें उत्तर प्रकृतिबंध दूसरा है | आचार्य कहैं हैं, जो पारिशेष्यन्यायतें दूसराका ग्रहण सिद्ध होय है । दोयभेद का नाम है, तब दूसरा विना नाम कहेही जानिये ऐसें । तातें सूत्रमें द्वितीयका ग्रहण न करना । आदिका मूलप्रकृतिबंध आठभेदरूप कह्या, तातें अवशेष बाकी उत्तरप्रकृतिविधि है ऐसें जानि लेना । बहुरि सूत्रमें भेदशब्द है सो पांच आदिकी संख्यातें जोडना । तहां पांच भेद ज्ञानावरणके, नव भेद दर्शनावरणके, दोय भेद वेदनीयके, अठाई भेद मोहनीयके, च्यारि भेद आयुके, वयालीस भेद नामके, दोय भेद गोलके, पांच भेद अंतराय के ऐसें जानना || आगे पूछे है, जो, ज्ञानावरणके पांच भेद कहे, ते कौंन हैं सो कहो, ऐसें पूछें सूत्र कहै हैं॥ मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानाम् ॥ ६ ॥
याका अर्थ-मति श्रुति अवधि मनःपर्यय केवल ए पांच ज्ञान हैं, तिनका आवरण करें सो पांच भेद ज्ञानावरणके हैं । तहां मत्यादिज्ञान तौ पूर्वै कहे ते लेणे, तिनका आवरण आवर
For Private and Personal Use Only