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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥पान ६०४ ॥
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दातार तथा देनेयोग्य वस्तु आदिकके मध्य अंतर करै, सो अंतराय है । एकही आत्माका परिणामकरि ग्रहण भये जो पुद्गल ते ज्ञानावरण आदि अनेकभेदकू प्राप्त होय हैं । जैसें एकवार खाया जो अन्न ताका रस रुधिर आदि अनेक परिणामरूप होय तैसें जानना ॥
तहां कोई कहै , ज्ञानावरण है सोही मोह है । जातें हिताहितकी परीक्षा न होय सो ज्ञानावरण, सोही मोह, यामें भेद कहा ? ताका समाधान, जो, अर्थकू यथार्थ न जाने सो तौ ज्ञाना| वरण है । बहुरि यथार्थ जानिकरिभी यऊ ऐसेंही है ऐसी रुचिरूप सत्यार्थविर्षे श्रद्धानका अभाव सो मोह है ऐसा भेद जाका जानना । अथवा कार्यके भेदतेंभी कारणका भेद जानिये । अज्ञान अदर्शन | तो ज्ञानावरण दर्शनावरणके कार्य हैं । अर अतत्वश्रद्धान रागद्वेषरूप इष्ट अनिष्ट बुद्धि मोहका || कार्य है । ऐसेंही कार्यके भेदतें कारणका भेद मूल उत्तर प्रकृतिनिविर्षे सर्वत्र जानना । बहुरि कर्मके
भेद हैं, ते शब्दकी अपेक्षा तो एक” ले संख्यात भेद जानने । तहां सामान्यकरि तो बंधरूप कर्म । है| एक है । सोही पुण्यपापके भेदतें दोय प्रकार है बहुरि सोही अनादि सांत, अनादि अनंत, सादि ।
सांत, ऐसें तीनिप्रकार है । तथा भुजाकार अल्पतर अवस्थित भेदतें भी तीनिप्रकार कहिये । बहुरि || | प्रकृति स्थिति अनुभव प्रदेशभेदते च्यारिप्रकार है। बहुरि द्रव्य क्षेत्र काल भव भाव इनके
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