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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय || पान ६०२ ॥
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वेदन की प्रकृति सुखदुःखका संवेदन है | दर्शनमोहकी प्रकृति तत्वार्थका अश्रद्धान है | चारित्रमोहकी प्रकृति असंयमभाव है । आयुकी प्रकृति भवका धारणा है । नामकी प्रकृति नारकआदि नामका कारण है । गोत्रकी प्रकृति ऊंचा नीचा स्थानका नाम पावना है। अंतरायकी प्रकृति दान आदिका विघ्न करणा है । सो ऐसा है लक्षण जाका ऐसा कार्यकूं प्रकर्षकरि करै । जातें ऐसा कार्य प्रगट होय सो प्रकृति है ॥
बहुरि तिस प्रकृतिस्वभावतें छूटे नाहीं तेंतैं स्थिति कहिये । जैसें छेली गऊ भैंसि आदिके दूधका मीठापणा स्वभावतें जेते न छूटना सो स्थिति है । तैसैंही ज्ञानावरण आदिका जो अर्थका न जानना आदि स्वभावतें न छूटना सो स्थिति है । बहुरि तिन कर्मनिका रसका तीव्र मंद विशेष सो अनुभव है । जैसें छेली गऊ भैंसि आदिका दूधका तीव्र मंद आदि भावकरि रसस्वादका विशेष है तैसेंही कर्मपुद्गलनिका अपनेविषै प्राप्त भया जो सामर्थ्यका विशेष, सो अनुभव है ॥
बहुरि परमाणुनिका गणतिरूप अवधारणा जो एते है सो प्रदेश है, जो पुद्गलपरमाणुके स्कंध कर्म भावकूं परिणये तिनका गणनारूप परिमाण यामें करिये है । बहुरि विधिशब्द है सो प्रकारवाची है । ते ए प्रकृति आदि तिस बंधके प्रकार हैं । तहां योगतें तौ प्रकृति प्रदेश बंध होय
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