________________
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
errorrertainertise
cawaSHOPONSORRENORRISORRORSCOPPOKHORAGAAORR
॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । अष्टम अध्याय ॥ सन २०१॥ वचन अन्यकी निवृत्तिके अर्थि है, यहही एक बंध है, अन्य नाहीं है । ऐसें कहनेकरि गुणकै अरु गुणीकेंभी बंध है सो बंध इहां न जानना । बहुरि बंधशब्द है सो कर्मसाधन है, तथा करणसाधन कर्तृसाधन भावसाधन भी जानना। तहां पहले बंधकी अपेक्षा आत्मा बंधकरि नवा बंध करे है। तातें बंधकू कारणभी कहिये, बहुरि जो आत्मा बांध्या सोबंध ऐसा कर्मभी कहिये, बहुरि आत्मा बंधरूप आपही परिणमे है तातें कर्ताभी बंधकू कहिये, बहुरि बंधनरूप क्रिया सोही भाव ऐसे क्रियारूपभी बंधकू कहिये । ऐसें प्रत्ययका अर्थविवक्षातें सिद्धि होय है । बहुरि ऐसा जानना, जो, आत्माकै कार्मणशरीररूप कोठा है । तामें कर्मरूप नाज भरया रहे है । सो पुराना तौ भोगमें आता जाय है अर नवा धरता जाय है । याका संतान टूटे, तब मोक्ष होय है ।। .. आगें पूछे है, जो, यहबंध कहा एकरूपही है कि या कोई प्रकार है ? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
॥प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः ॥३॥ याका अर्थ- प्रकृति स्थिति अनुभव प्रदेश ए च्यारि तिस बंधकी विधि है। तहां प्रकृति तो स्वभावकू कहिये । जैसें नीमवृक्षकी प्रकृति कडुपणा है, गुडकी प्रकृति मीठापणा है, तैसें ज्ञानावरणकर्मकी प्रकृति पदार्थकू न जानना है । दर्शनावरणकी प्रकृति पदार्थका न देखना है।।
tertainertialiteracinetalkies
For Private and Personal Use Only