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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ५९९ ॥ | ऐसें जणावनेकू कह्या है । इहां प्रश्न, जो, आत्मा तो अमूर्तिक है, याकै हस्त नाही, सो कर्मका ग्रहण कैसे करै है? ऐसे पू● सूत्रमें जीव ऐसा शब्द कह्या है, जो प्राणनिके धारणते जीवै, सो जीव कहिये । सो आयु नाम प्राणका संबंध है तेतें जीव है। जो आयुकर्मका संबंध न होय तौ जीवै नाही, ऐसा इस जीवनेकूही हस्तसहितकी उपमा है। ऐसा जीव कर्मकू ग्रहण करै है। बहुरि कर्मयोग्यान ऐसा कहनेमें लघुनिर्देश होता अक्षर घाटि आवता, सो यहां कर्मणो योग्यान ऐसा क्यों कह्या ? ताका प्रयोजन कहै हैं, जो, इहां न्यारा विभक्तिका उच्चार कीया है, सो अन्यवाक्य जनावनेके अर्थि है । सो न्यारा वाक्य कहा? सो कहे हैं, कर्मते जीव कषायसहित होय है, ऐसे एक वाक्य तौ यह भया । इहां कर्मशब्दके पंचमीविभक्तिकरि हेतुअर्थ कीया, जातें कर्मरहित जीवकै कषायका लेशभी नाहीं है । ऐसा कहने” यह प्रयोजन आया, जो, जीवकर्मका अनादिसंबंध है । तिसकरि ऐसा तर्कका निराकरण भया, जो, अमूर्तिक जीव मूर्तिक कर्म कैसे बंधै? जो ऐसें न होय बंध नवीनही मानिये, तो पहले जीव सर्वथा शुद्ध ठहरै तौ सिद्धनिकीज्यों बंधका अभाव ठहरै है ।।
बहुरि दूसरा वाक्य ऐसा, जो, जीव कर्मके योग्य पुद्गलनिकू ग्रहण करै है। तहां अर्थके
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