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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ५९८ ॥ | किलुभी न संभवैगा । प्रत्यक्ष विरोध आवैगा । इत्यादि विचार कीये जिननें हिंसाकरि धर्म ठहराया है तिनके वचनसौं रागी द्वेषी विषयी प्राणीनिके कहे भासे हैं, तातें प्रमाणभूत नाहीं । ऐसें मिथ्यादर्शनके अनेक भेद हैं । तिनकू नीकै समझि मिथ्यात्वकी निवृत्ति होय ऐसा उपाय करना । यथार्थ जिनागमकू जानि अन्यमतका प्रसंग छोडना अरु अनादित पर्यायबुद्धि जो नैसर्गिकमिथ्यात्व ताकू छोडि अपना स्वरूपकू यथार्थ जानि बंधसूं निवृत्ति होना, तिसहीका अभ्यास जैसे वणे तैसें करणा यह श्रीगुरुनिका प्रधान उपदेश है ॥
आगे, वधके कारण तौ कहे अब वध कहनेयोग्य है सो कहै हैं
॥ सकषायत्वाजीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बन्धः॥२॥
याका अर्थ- यह जीव है सो कषायसहितपणातें कर्मके योग्य जे पुद्गल तिनकू ग्रहण करै है, सो वध है। तहां कषायकरि सहित व ताकं सकषाय कहिये, ताका भाव सो सकषायत्व | कहिये । ऐसा कषायपणाकू पंचमीविभक्तीकरि हेतुकारण कह्या सो यह हेतु कहनेका कहा प्रयोजन
सो कहै हैं । जैसें उदरविर्षे अमिका आशय है ताके अनुसार आहारकू ग्रहण करै है तैसें तीव्र मंद म मध्यम जैसा कषायका आशय होय ताके अनुसार स्थिति अनुभागरूप होय कर्म ग्रहण होय बंधै है,
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