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॥ सर्वार्थसिदिषचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय । पान ५९७ ॥ बहुरि प्राणिवघकू धर्म लिख्या ताकू धर्म मानिये तो जे जीवहिंसक हैं तिनके सर्वकै धर्मसा|| धन ठहरे है । फेरि कहै, जो, यज्ञसिवाय अन्य जायगा प्राणिवध करै तो आपहीके अर्थ है।
ताकू कहिये, प्राणिनिका वध तो दोयजायगा बरोबरि है, दोऊही जायगा प्राणिनिकू दुःख होय है, या विशेष कहा ? फेरि कहै, मंत्रविधानतें पशुहोम कीये पाप नाहीं होय है । ताकू कहिये, जो, मंत्रकी सामर्थ्य तौ तब जानिये जो केवल मंत्रहीतें पशूकू बुलायकरि होमें । होममें तो जेवडा | बांधिकरि पटकिये है ऐसे मारणेमें मंत्रकी सामर्थ्य कहा रही? तातें यह तो प्रत्यक्षतें विरुद्ध है, जो, मंत्रसामर्थ्यतें होमें पाप न होय । बहुरि जैसे शस्त्रादिकरि पशूनिकू मारै पाप होय है, तैसें मंत्रतेंभी मारै पापही होयगा हिंसाका दोष तौ न मिटेगा । जातें पशुकू बांधि होममें पटकतें अशुभपरिणामही होय है । अशुभपरिणामहीतें पाप है ॥
बहुरि वाकू पूछिये, जो, मंत्रपूर्वक होम करै है, सो इस क्रियाका करनेवाला कर्ता कौंन ा है? जो, पुरुषकों बतावै तौ पुरुष नित्य कहेगा तौ ताके करनेके परिणाम काहेतें होते? परिणाम |
तौ अनित्यकै होय हैं । बहुरि अनित्य कहेगा तो स्मरणआदिका अभावतें किया तथा क्रियाका करनेवाला फल लेनेवाला न ठहरेगा। बहुरि पुरुषकू एकही मानेगा तौ कर्ता कर्म आदिका भेद
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