________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । षष्ठ अध्याय ॥ पान ४८४ ॥ कर्मका आश्रव होय है । बहुरि कषापरहित जीव हैं, जो, उपशांतकषायकू आदि देकरि तिनके ईर्यापथकर्मका आश्रव होय है । इहां भावार्थ ऐसा, जो, सकपायी जीव तौ कर्मकी स्थिति अनुभाग पडै है । बहुरि अकषायी जीवक स्थिति अनुभाग नाहीं । एकसमय मात्र आश्रव होय, तिसही समय झंडि जाय है।
आगें आदिमें कह्या जो सांपरायिक आश्रव ताके भेद कहनेकू सूत्र कहै हैं॥ इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पंचचतुःपंचपंचविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥ ५॥ ___ याका अर्थ- पहले कह्या जो सांपरायिक आश्रव ताके भेद- इंद्रिय पांच, कषाय च्यारि, अव्रत पांच, क्रिया पचीस ए गुणतालीस भेद हैं। इहां इन्द्रिय आदिनिकै पंच आदिकी संख्याकरि यथासंख्य जानना । इंद्रिय पांच, कषाय च्यारि, अव्रत पांच, क्रिया पचीस ऐसें । तहां पंच इन्द्रिय तौ पहले कही थी सोही । बहुरि कषाय क्रोध आदिक । बहुरि पांच अव्रत हिंसा आदिक आगे कहसी । बहुरि क्रिया पचीस कहिये हैं। तहां जो चैय गुरु प्रवचननिकी पूजा करना इत्यादिक जो सम्यक्त्वकी वधावनेहारी क्रिया होय सो सम्यक्त्वक्रिया है ॥१॥ अन्य देवताका स्तवनआदिरूप मिथ्यात्वकी कारण प्रवृत्ति सो मिथ्यात्त्रक्रिया है ॥ २॥ कायआदिकरि गमनागमन आदिका
For Private and Personal Use Only