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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचदंकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५५८ ॥ गृहस्थ सो पांचमां अणुव्रतधारी है ॥
इहां कोई पूछे, जो, गृहस्थव्रतीकू त्रसके घातका त्यागी कह्या सो याकै व्यापारआदि गृहस्थके आरंभ अनेक हैं, तिनमें त्रसकी हिंसा अवश्य होय है । तामें त्याग कैसे पलै ? बहुरि याकै शास्त्रमें ग्यारह प्रतिमारूप भेद कहे हैं, तिनमें समझै नाही, सो कैसै है ? ताका समाधान, जो | श्रावकके ग्यारह प्रतिमारूप भेद कहे हैं, तिनमें प्रथमप्रतिमाविही स्थूलत्यागरूप पांच अणुव्रतका ग्रहण है । याका लक्षण ऐसा कह्या है, जो, आठ तौ मूलगुण पालै, सात व्यसन छोडै, सम्यग्दर्शनके अतीचार मल दोष टाले ऐसें कहै ते पांच अणुव्रत स्थूलपणे आवै है। जातें कोई शास्त्रमें तो आठ मूलगुण कहे हैं । तामें पांच अणुव्रत कहे मद्य मांस सहतका त्याग कह्या ऐसें आठ कहे । | कोई शास्त्रमें पांच उदंवर फलका त्याग, तीनि मकारका त्याग ऐसें आठ कहे । कोई शास्त्रमें | अन्यप्रकारभी कह्या है, यह तौ विवक्षाका भेद है ॥
तहां ऐसा समझना , जो, स्थूलपणे पांच पापहीका त्याग है । पंच उदंबर फलमैं तो सभक्षणका त्याग भया, शिकारके त्यागमें त्रस मारनेका त्याग भया, चोरी तथा परस्त्री व्यसनत्यागमें दोऊ व्रत भये, द्यूतकर्मआदि अतितृष्णाके त्यागते असत्यका साग तथा परिग्रहकी अतिचाह मिटी,
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