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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचदंकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५६२ ॥
करना, सो अशुभश्नुत है ॥
बहुरि सामायिक कहै हैं । तहां सामायिकशदका अर्थ कहै हैं । सम् ऐसा उपसर्ग है, सो एकताके अर्थमें है । जैसें संगतं घृतं कहिये काढू वस्तुमें घृत मिले एक होय ताकू संगतं घृतं कहिये । तथा तेल मिल्या होय एक होय गया होय तहां संगतं तैलं ऐसा कहिये । तैसें एकही भूत जानिये । बहुरि ऐसे एकत्वपणाकरि अयनं कहिये गमन होय सो समय कहिये । बहुरि समयही होय , सो सामायिक कहिये । तथा समय जाका प्रयोजन होय सो सामायिक कहिये । भावार्थ ऐसा, जो स्वरूपविर्षे तथा शुभक्रियाविर्षे एकता करि लीन होना, सो सामायिक है । तहां एते क्षेत्रवि एते कालवि मै इस अपने स्वरूपवित्रं तथा शुभक्रियाहीविौं लीन हूं ऐसें मर्यादकरि सामायिकवि तिष्ठे है, ताके तेते देशकालसंबंधी महावतका उपचार है । तातें सूक्ष्मस्थूलप्रकारकरि याकै हिंसादिकका अभाव है।
इहां कोई कहै, ऐसें तौ सकलसंयमका प्रसंग आवै है। ताकू कहिये, याकै सकलसंयमका घातक प्रत्याख्यानावरण कषायका उदयका सद्भाव है, तातें सकलसंयम नाहीं। बहुरि कहै, जो, । ऐसें कहै । महाव्रतका अभाव आवै है, तुम महाव्रत कैसे कहो हो ? ताळू कहिये, जो, उपचारकरि ||
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