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ఆదురుండరంగనంతంరంగారకుండుననకులకు
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५७० ॥ सम्यग्दृष्टीके हैं। तहां निःशंकितपणाळू आदि देकर आठ सम्यक्त्वके अंग पूर्वं दर्शनविशुद्धिके कथनवि कहे थे, तिनके प्रतिपक्षी दोष जानने । इहां पूछे है, प्रशंसा अर संस्तवमें कहा विशेष है ? ताका उत्तर, जो, मनकरि मिथ्यादृष्टीके ज्ञानचारित्रगुणका प्रगट करनेका विचार ताकौं भला जानना, सो तो प्रशंसा है। बहुरि मिथ्यादृष्टीविर्षे छते तथा अणछते गुणका प्रगट करनेका वचन कहना सो संस्तव है । इह इनि दोऊनिमें भेद है । बहुरि पूछे है, सम्यग्दर्शनके आठ अंग कहे थे ताके तेतेही प्रतिपक्षी अतीचार चाहिये, पांचही कैसे कहे ? तहां कहै हैं, जो, यह दोष नाहीं। आगें व्रतशीलनिवि पांचपांचही संख्याकरि अतीचार कहेंगे, तातें प्रशंसासंस्तवविर्षे अन्य अतीचारनिळू गर्भितकरि पांचही कहे हैं । इहां ऐसाभी विशेष जानना, जो, सम्यग्दृष्टि मुनि तथा श्रावक दोऊही होय हैं, सो ए अतीचार दोऊनिकै संभवै हैं ॥ ___आगें, सम्यग्दृष्टीके अतीचार तो कहे, बहुरि पूछ है कि ऐसे अतीचार व्रतशीलनिविभी होय हैं कहा? ऐसे पूछे आचार्य कहै हैं, हा, होय हैं। ऐसें कहिकरि तिन अतीचारनिकी संख्या कहनेकू सूत्र कहै हैं
॥व्रतालेषु पंचपंच यथाक्रमम् ॥२४॥
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