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॥ सर्वार्थसिदिषचनिका पंडित जयचंदजीकता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ५९३ ॥
शुद्धपदार्थ थापि अर अस्ति नास्ति अस्तिनास्ति अवक्तव्य ए च्यारि भंग लगावणे, तब च्यारि होय । यामें ऐसा कहना, जो, पदार्थ है कि नाहीं है, कि दोऊरूप है, कि अवक्तव्य है। ऐसे कौन जाने है ? कोऊही जानें नाहीं । इहां भावार्थ ऐसा, जो, सर्वज्ञ कोऊ नाही सर्वज्ञविना कोन जाने? ऐसे अज्ञानकी पक्ष भई, तातें सब मिलि अज्ञानवादके सतसठि भंग भये ॥
अब वैनयिकवादके बत्तीस भंग कहै हैं। विनय मन वचन काय ज्ञान इन च्यारिनिकरि होय है, सो देव राजा ज्ञाति यति वृद्ध बाल माता पिता इन आठनिका होय । तब एकएकप्रति च्यारि दिये तब बत्तीस भंग भये । इनका अर्थ देवमात्रका विनय कीये सर्वसिद्धि है इत्यादि । सुगम है, सो जानना । ऐसें ए तीनिसै तरेसठि वाद स्वच्छंद प्रवर्तनेवाले निकले हैं। पाखंडी मिथ्यादृष्टीनिके व्याकुल करनहारे हैं । अज्ञानी लोकनिके चित्तषं हरै हैं, रंजायमान करै हैं। ज्ञानी यथार्थ जाने है, ऐसें अन्यभी वाद हैं। तहां पौरुषवादी कहै है, जो, आलस्यवान उत्साहरहित होय सो किछुभी फल न पावै । जैसैं बालक मातास्तनकू खैचिकरि दूध पीवै तौ मिलै |
नातर न मिले, तातें पौरुषही कार्यसिद्धि है, विनापौरुष किछुभी नाहीं । बहुरि दैववादी कहै है हैं, हम तो केवल दैवकूही उत्तम माने हैं, पौरुष अनर्थक है, ताकू धिक्कार है। प्रत्यक्ष देखो,
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