________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्ययय ॥ पान ५८१ ॥
अपिधान कहिये तिस सचितहीतें ढाकना । बहुरि अन्यदातारका देय कहिये आहार आदि देनेयोग्य वस्तु सो लेकर अपना नाम करना तथा परकूं आप सोपि परका नाम करना आप नाम न करना, सो परव्यपदेश है । बहुरि दान देना तामें आदर नाहीं निरादरतें देना तथा अन्य देनेवाला यथाविधि देय ताकूं गुणकूं सराहना नाहीं अदेखसाभाव करना, सो मात्सर्य है । बहुरि अकालविषै भोजन देना कालकूं उल्लंघना, सो कालातिक्रम है । ऐसें ए पांच अतीचार अतिथिसंविभागशीलके हैं । ऐसें सात शीलके अतीचार कहे ॥
आगे सल्लेखनाके अतीचार कहै हैं
॥ जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि ॥ ३७ ॥
याका अर्थ - जीवनेकी वांछा, मरने की वांछा, मित्रनतें अनुराग, सुखका अनुबंध, निदान करना ए पांच अतीचार उल्लेखनाके हैं। तहां आशंसा नाम वांछाका है, सो जीवना मरण इनकी वांछा करनी, बहुरि पहले मित्रनिसहित धूली आदितैं क्रीडा करी थी ताका यादि करना वारंवार स्मरण करना, सो मित्रानुराग है । बहुरि पूर्वै सुख भोगे थे तिनसूं प्रीतिविशेषके निमित्त वारंवार यादि करना तथा वर्तमान में सुखही चाहना, सो सुखानुबंध है । बहुरि भोगकी वांछा करि नियम बांधना,
For Private and Personal Use Only