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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५८३ ॥ अनुग्रहके अर्थि स्वका अतिसर्ग कहिये त्याग करना, सो दान है ॥
आगें पूछे है, जो, ए दान है ताका फल एकही अविशिष्ट कहिये विशेषरहित है कि किछु विशेषफलस्वरूप है ? ऐसे पूछ सूत्र कहै हैं--
॥विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ॥३९॥ याका अर्थ-- विधिका विशेष, द्रव्यका विशेष, दातारका विशेष, पात्रका विशेष इनका विशेषतें फलका विशेष है। तहां दान देनेकी विधि ताका तो आदरतें देना अनादरतें देना ऐसा विशेष है । तहां मुनिकू देनेमें तौ नवप्रकार भक्ति कही है । तहां प्रतिग्रह कहिये पडघावना, ऊंचा आसन देना, पादप्रक्षालन करना, पूजन करना, प्रणाम करना, मन वचन काय शुद्ध करने, भोजन देनेकी शुद्धता करनी ऐसें विधिका विशेष है । तपस्वाध्यायकी वृद्धिका करनेवाला आहार देना यह द्रव्यका विशेष है । बहुरि दातारका सात गुण कहे हैं । तहां परका तौ दानका नाम न करना यामें निरादर आवे है, बहुरि क्रोधकरि न देना क्षमातें देना, बहुरि कपटते न देना, बहुरि अन्य देनेवालेते ईर्षा करि ताके अवगुण न काढने याकू अनसूया कहिये, बहुरि देनेका तथा दीयेका पीछे विषाद पिछताव न करना, बहुरि दीयेका बडा हर्ष मानना, बहुरि दीयेका गर्व न करना ऐसें दातारके
ఆనందకందుల కులసకులను
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