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|| सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय || पान ५८७ ॥ मिथ्यादर्शनादिक तौ पहलें कहे तेही हैं । तत्वार्थश्रद्धानका प्रतिपक्षी अतत्वार्थश्रद्धान तथा आश्रवके विधानविषै मिथ्यादर्शनक्रिया कही, सो तौ मिथ्यादर्शन जानना । बहुरि विरति पहले कही, तिसके प्रतिपक्षभूत अविरति जाननी । बहुरि आश्रवविधानमें आज्ञाव्यापादिकी तथा अनाकांक्षा क्रिया कही, तिनविषै प्रमादका अंतर्भाव जानना । सो प्रमाद कल्याणरूपकार्यविषै अनादरस्वरूप है | बहुरि इन्द्रियकपाय इत्यादि सूत्र आश्रवके कथनविषै कहा है । तहां अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलनभेदरूप कषाय कहे हैं । बहुरि तिसही आश्रवके कथनविषै प्रथमही सूत्रमें काय वचन मनके योग कहे हैं, तेही यहां जानने ॥
तहां मिथ्यादर्शन तौ दोयप्रकार है, नैसर्गिक परोपदेशपूर्वक । तहां परोपदेशविना मिथ्याकर्मके उदय वश तत्वार्थश्रद्धानका अभावरूप परिणाम आत्माकै प्रगट होय सो तौ नैसर्गिक है | बहुरि परका उपदेश के निमित्ततें होय सो च्यारिप्रकार है, क्रियावादी अक्रियावादी आज्ञानिक वैनयिक ऐसें । अथवा पांचप्रकार है, एकांत विपरीत संशय वैनयिक आज्ञानिक । तहां पदार्थविषै अनेकधर्म हैं तिनमें ऐसा अभिप्राय करै, जो; वस्तु धर्मीमात्र है, तथा धर्ममात्रही है, तथा कोई एक धर्म ग्रहणकर कहैं । इस एकधर्ममात्रही है, अस्तित्वमावही है, नास्तित्वमात्रही है, एकव
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