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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ५८९ ॥
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वचनयोग, पांच काययोग ऐसें तेरह योगके भेद हैं । अर आहारक आहारकमिश्र काययोग ए प्रमत्तसंयमीकै होय हैं तातें योग पंदरहभी हैं । बहुरि प्रमाद है सो अनेकविध है। तहां भावकायविनय ईर्यापथ भिक्षा प्रतिष्ठापन शयनासन वाक्य ए आठ तो शुद्धि बहुरि दशलक्षणधर्म | इनविर्षे उत्साहरहित परिणाम होय तहां प्रमाद कहिये । ऐसें ए पांच बंधके कारण समस्त कहिये | सारे एकटे तथा व्यस्त कहिये ते न्यारे न्यारे होय हैं। सोही कहिये है, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवालेकै तौ पांचूही कारण बंधके हैं । बहुरि सासादन मिश्र असंयतसम्यग्दृष्टि इन तीनिकै अविरत आदि च्यारि बंधके कारण हैं । बहुरि संयतासंयतकै अविरति है सो विरतिकरि मिश्रित है अर प्रमाद कषाय योग ऐसें च्यारि हैं। बहुरि प्रमत्तसंयमीके प्रमाद कषाय योग ए तीनि हैं। अप्रमत्त आदि च्यारि गुणस्थानवालेनिकै योग अर कषाय ए दोयही हैं। बहरि उपशांतकषाय क्षीणकषाय सयोगकेवली इन तीनिके एक योगही है । बहुरि अयोगकेवली बंधराहत है ऐसें जानना ॥
इहां विशेष लिखिये हैं । प्रथम तौ बंधके पहले ताके कारण कहे, तामें तो यह जनाया है, जो, विनाकारण बंध नाहीं होय है । तथा कूटस्थ सर्वथानित्यकभी बंध नाहीं होय है । संतानकी अपेक्षा तो अनादिबंध है । अर पुरातन जड है नवीन बंध है ताकी अपेक्षा आदिसहित बंध
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