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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५८२ ॥' जो ऐसा भोग मिलै' सो निदान है । ऐसें ए पांच सल्लेखनाके अतीचार हैं । इहां ऐसा भावार्थ, जो, ए पांच कहे सो कोई जानेंगा पांच पांचही हैं, सो ऐसें न समझना। जहां पांच कहै तहां बहुवचन है । सो इनमें इनके समान अनेक गर्भित हैं । तहां यथासंभव जानने । इनके जानने• तथा व्रतनिकू श्रीगुरुनिका सरणा निर्दोष करै है। इहां व्रतशीलनिके अतीचार कहने में ऐसाभी | आशय सूचै है, जो, तीर्थकरनामकर्मकी प्रकृतिके आश्रवके कारण कहे, तिनमें शीलवतेष्वनतीचार ऐसी भावना कही है। तातें तिनके अतीचार जनाये हैं।
आगें पूछे है, जो, तुमने तीर्थकरनामप्रकृतीके कारण आश्रवके निर्देशविर्षे कह्या जो " शक्तितस्त्यागतपसी" ऐसे तथा शीलविधानविर्षे अतिथिसंविभाग कह्या है, तामें त्याग दानका लक्षण है, मनमें न जाण्या, सो अब कहो, ऐसें पूछे सूत्र कहें हैं
॥अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥३८॥ . याका अर्थ- अपना परका उपकारके अर्थि अपना वित्तका सो दान है। तहां अपना | परका जो उपकार सो अनुग्रह कहिये। तहां अपना उपकार तौ पुण्यका संचय होना है बहुरि परका || उपकार सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी वृद्धि होना है । बहुरि स्व ऐसा धनका नाम है। सो ऐसे
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