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॥ सार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । सप्तम अध्याय ॥ पान ५३८ ॥
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| नाहीं । जातें इहां प्रमत्तयोग नाहीं है प्रमत्तयोगते प्राणव्यपरोपणा करै सो हिंसा कही है सो याकै हिंसा नाहीं। जाते रागादिदोषका याकै अभाव है। जो राग दोष मोहके वश होय, सो विषशस्त्रादि उपकरणनिकरि आपकू घाते, ताकै आत्मघात होय है। तेसैं सल्लेखनामें नाहीं है। जातें इहां आत्मघातका दोष नाहीं है। इहां उक्तं च गाथा है, ताका अर्थ- रागादिकनिकी उत्पत्ति न होना, सो अहिंसकपणां सिद्धान्तमें कह्या है । बहुरि तिन रागादिकनिकी उत्पत्ति , सो हिंसा है, ऐसें जिनभगवाननें कह्या है ॥.
बहुरि विशेष, जो, प्राणीकै मरण अनिष्ट है, तहां जैसे कोई व्यापारी अनेकप्रकार व्यापारकी वस्तु संचय करी होय घरमें धरी होय ताकै घरका विनाश होना इष्ट नाहीं है, तहां कोई कारण ताके विनाशका कारण आय प्राप्त भया होय ताकू यथाशक्ति दूरि करे, बहुरि कारण दूरि न होय | सकै तौ जैसैं अपनी व्यापारकी वस्तु घरमें धरी थी तिनका विनाश न होय तैसें यत्न करैः | ऐसेंही गृहस्थ श्रावकभी व्रतशीलरूप व्यापारकी वस्तुका संचयविर्षे प्रवर्ते है, तिसका आश्रय यह जीवित है ताका नाश तो न चाहै है, बहुरि तिसके नाशका कारण आय प्राप्त होय तब | ता कारण• जैसें अपना गुण विरोध्या न जाय तैसें दूरि करै, बहुरि जो नाशका कारण दूरि
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