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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पडित जयचंदजीकृता । सप्तम अध्याय ॥ पान ५६० ॥ चारकी सोधना है, आरंभपरिग्रह अल्प होय है । पंचपापतें बहु भयवान् है। परंतु प्रत्याख्यानावरणके तीवस्थानक उदय होतें सकलव्रत न बणै हैं, इत्यादि भावार्थ जानना॥
आगें पूछ है कि, गृहस्थ अणुव्रतीका एतावन्मात्रही विशेष है, कि किछू औरभी है ? सो ताके विशेषका सूत्र कहै हैं
दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोग
परिमाणातिथिसंविभागव्रतसम्पन्नश्च ॥ २१॥ याका अर्थ- गृहस्थ अणुव्रती है, सो, दिग्विरति देशविरति अनर्थदंडविरति ए तीनि तौ गुणव्रत हैं, बहुरि सामायिक प्रोषधोपवास उपभोगपरिभोगपरिमाण अतिथिसंविभाग ए च्यारि शिक्षाव्रत इन सातव्रतनिकरि सहित होय है । इनकू सात शीलभी कहिये । इहां विरतिशब्द तौ प्रत्येक | लेनेते तीनि व्रत भये हैं । च्यारि सामायिक आदि व्रतही हैं, सोही कहिये है । दिक् कहिये पूर्वआदि दिशा, तिनविर्षे प्रसिद्धचिह्न पर्वत नदी ग्राम नगरादिक, तिन पर्यंत मर्याद करि नियम करै सो तौ दिग्विरतिव्रत है । यातें बाहिर त्रसथावर सर्वही प्राणीनिका घातके अभावते याकै महा. व्रतपणाका उपचार है । तिस बाहर लाभ होतेंभी परिणाम चलै नाहीं । तातें लोभकषायका निरास
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