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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५६४ ॥ दोऊनिका परिमाण, सो उपभोगपरिभोगपरिमाण कहिये । इहां भोगसंख्या पांचप्रकार है । त्रसघात प्रमाद बहुवध अनिष्ट अनुपसेव्य ऐसें । तहां त्रसघात” निवृत्त है चित्त जाका तिस पुरुषकरि मांस अरु सहत तौ सदाही त्याग करने । बहुरि मद्य है सो मन मोहै है ताते प्रमाद छोडनेके अर्थि छोडना । बहुरि केवडा केतकी सहीजणा अगथ्याके फूल आदि तथा जमीकंद आदौ मूला आदि बहुजीवनिका उपजनेका ठिकाण जिन; अनंतकाय कहिये ते सर्वही त्याग करने । जातें इनमें घात तो बहुतजीवनिका है अर फल अल्प है-किंचित् खादमात्र फल है । बहुरि यान वाहन आभरण आदिकविर्षे मेरे ऐता इष्ट है, इससिवाय अनिष्ट है ताका त्याग है, ऐसे इह अनिष्टत्याग कहिये । बहुरि कालके नियमकरि यावजीव यथाशक्ति इष्टवस्तुविर्षेभी सेवनेयोग्य नाहीं तिनका त्याग करना, सो अनुपसेव्यत्याग कहिये ॥
बहुरि जो संयमकू पालता संता अतति कहिये विहार करै सो अतिथि कहिये अथवा जाकै | तिथि नाहीं होय सो अतिथि कहिये, जो पडिवा दोयज आदि तिथिरूप कालके नियमविना
आहारकू आवै सो अतिथि है, ऐसा अर्थ है । ऐसें अतिथिके अर्थि संविभाग कहिये अपने भोज| नवस्तुविर्षे विभाग देना, सो च्यारिप्रकार है । भिक्षा उपकरण औषध वसतिका । तहां मोक्षके |
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