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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५५९ ॥ मांस मद्य सहतके त्यागते त्रसकू मारिकरि भक्षण करनेका त्याग भया । ऐसें पहली प्रतिमामें पंच अणुव्रतकी प्रवृत्ति संभवै है । अर इनके अतीचार दूरि करि सकै नाहीं । तातें व्रतप्रतिमा नाम न पावै । सम्यग्दर्शनके मल दोष अतीचार दूर होय सके हैं, दर्शनप्रतिमा नाम कहावै है । मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनाकरि अतीचाररहित प्रतिज्ञा पलै, तब प्रतिमा नाम पावै है, प्रतिमा नाम मूर्तिकाभी है, सो व्रतकी सांगोपांग मूर्ति बणे तव प्रतिमा कहिये, सो इस दर्शनप्रतिमाका धारक पंचपरमेष्ठीका भक्त है, अन्यकी उपासना नाहीं, संसारदेहभोगते विरक्त है। जो प्रतिज्ञा याकै है, सो ऐसी है, जो, संसारके कार्य बिगडै तौ बिगडौ, देह बिगडै तौ बिगडौ, भोग बिगडै तौ बिगडौ, प्रतिज्ञा तो भंग न करनी । ऐसें दृढपरिणामहीते प्रतिज्ञा नाम पावै है।
बहुरि त्रसके घातकीभी ऐसी तौ प्रतिज्ञा होय है, जो, त्रसप्राणीकू मनवचनकायकरि मारूं | नाही, परकू उपदेशकरि मरवाऊं नाहीं, अन्य मारै तौ ताकू भला जाणूं नाही, देवताके अर्थि
गुरुके अर्थि मंत्रसाधनके अर्थि रोगके इलाजके अर्थि त्रसप्राणीकू घातूं नाहीं अर व्यापारआदिकायनिविर्षे यत्न तो करै, परंतु तहां गृहस्थके आरंभके अनेक कार्य हैं, कहांताई बचावै ? तोऊ याके | अभिप्रायमैं मारनेहीके परिणाम नाहीं, तातें पाप अल्प है। बहुरि व्रतप्रतिमामें व्रतनिके अती
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