________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५५७ ॥ कहिये गृहस्थव्रती है। तहां अणुव्रतशब्द है सो अल्पवचन है, जाकै अणुव्रत होय सो ऐसा | अगारी कहिये है । इहां पूछे है, या अगारी गृहस्थकै व्रतनिका अणुपणा कैसें है ? ताकू कहै है, याकै सर्वसावध कहिये सर्वही पाप तिनकी निवृत्ति कहिये अभाव ताका असंभव है-होय सकै नाहीं | । फेरि पूछे, जो, यऊ कौनसे पापते निवृत्त है ? तहां कहिये है, वसप्राणीनिका व्यपरोपण कहिये मारणा तातें निवृत्त है । तातें तो याकै आद्यका अहिंसा नामा अणुव्रत है । बहुरि जिस असत्य वचनौं घरका विनाश होय, तथा ग्रामका विनाश होय, ऐसा आप जाणें तिस असत्यवचनतें निवृत्त होय नेहमोहके वश ऐसा वचन न बोलै ऐसे गृहस्थकै दूसरा अणुव्रत होय है । बहुरि
अन्यकू पीडाका कारण ऐसे अदत्तादानादिकका न लेना, ताका राजादिकके भयतें अवश्य त्याग होयही, तिसविर्षे लेनेकी इच्छाभी न होय, ऐसे परिणाम न होय, जो, भय न होय तो लेवो विचारै, ऐसा होय तो ताविर्षे आदरही न होय, सो तीसरे अणुव्रतधारी श्रावक है । बहुरि उपात्त | कहिये परकी व्याही अर अनुपात्त कहिये परकी व्याही नाहीं ऐसी जो परस्त्री तिसके संगमतें |
नाहीं है रति कहिये राग जाकें ऐसा गृहस्थ, सो तो चौथा अणुव्रतधारी है। बहुरि धन धान्य है। क्षेत्र आदि परिग्रहका अपनी इच्छाके वशतें परिमाण करै, जेती इच्छा होय तेता राखै ऐसा जो |
For Private and Personal Use Only