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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५५६ ॥ बहुरि तर्क, जो, अगारी जो ग्रहस्थ ताकै व्रतीपणाकी प्राप्ति नाही बणे है। जातें याके परिपूर्ण व्रत नाहीं। व्रती ऐसा नाम तो पूर्ण व्रत होय तब बनें । ताका समाधान, जो, यह दोष नाहीं है । नैगम आदि नयकी अपेक्षाकरि अगारी ग्रहस्थकभी व्रतीपणां वणे है । जैसे कोऊ एक साल ऊबरामें वसता होय ताकू नगरमें वसनेवालाभी कहिये । तैसें ताकै सकलव्रत नाही है, एकदेशवत है तोऊ ताकू व्रती कहिये । नैगम संग्रह व्यवहार ए तीनूं नय हैं, तिनकी अपेक्षा जाननी। तहां नैगम तो आगामी सकलव्रती होयगा। ताकी अपेक्षा संकल्पमात्रविषय करे है । बहुरि संग्रह सामान्यव्रतीका ग्रहण करै है। तहां एकदेशभी आय गया । बहुरि व्यवहार व्रतीका भेद करे है। तातें एकदेशव्रतीका भेद हैही, एकदेशवि सर्वदेशका उपचारतेंभी बणें है, ऐसा जानना ॥
आगें पूछे है कि, हिंसादिक पांच पाप हैं, तिनमें कोई पुरुष एकपापते निवृत्त हुवा होय सो गृहस्थ व्रती है कि नाही? आचार्य कहै हैं नाहीं है । फेरि पूछे है, जो, कैसे हैं ? तहां कहें हैं, पांचूही पापकी विरति वैकल्येन कहिये एकदेशपणे करै, सो इहां विवक्षित है । ताका सूत्र
॥ अणुव्रतोऽगारी ॥ २०॥ याका अर्थ- पांच पापका त्याग अणुव्रत कहिये एकदेश त्याग जाकै होय सो अगारी |
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