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|| सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचदंकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५५४ ॥ इहां तर्क करै है, शल्यका अभावतें तौ निःशल्य कहिये । बहुरि व्रतके धारण व्रती कहिये। इहां व्रतीका विशेषण निःशल्य कीया सो व्रतकै अर निःशल्यपणाकै विरोध है, तातें विशेषण वणे नाहीं । निःशल्यकू व्रती कहना वणें नाहीं । जैसें दंडके संबंधतें तौ दंडी कहिये । छत्रके संबंधतें छत्री कहिये । दंडीके संबंधते छत्री कहना तो वणें नाहीं । ताका समाधान, इहां दोऊ विशेषणते व्रती कहना इष्ट कीया है । केवल हिंसादिकके छोडनेहीमात्र व्रतके संबंधतें शल्यसहितकू व्रती कह्या नाहीं, जाकै शल्यका अभाव होय तब व्रतके संबंधतें गृहादिकमें वसने न वसनेकी अपेक्षा अगार अनगारके भेदकरि व्रती कहनेकी विवक्षा है । जैसें जाकै बहुत दूध घृत होय ताकू गऊवाला कहिये बहुरि जाके दूध घृत नाही होय अरु गऊ विद्यमान होय तो गऊवाला कहना निष्फल है । तैसें | जो शल्यसहित होय ताकै व्रत होतेभी व्रती कहना सत्यार्थ नाहीं । जो निःशल्य है सोही व्रती है। तथा इहां ऐसाभी उदाहरण है, जो, प्रधान होय ताका विशेषण अप्रधानभी होय है। जैसे कोई र काटनेवाला पुरुष तौ काटनेकी क्रियाविर्षे प्रधान हैही, परंतु ताके विशेषण कीजिये जो तीक्ष्ण | फरसीकरि काटै है तहां तीक्ष्णगुण विशेषणसहित फरसी अप्रधान है। सो काटनेवाला पुरुषका विशेषण होय है; तैसें निःशल्यपणागुणकरि विशेषणस्वरूप जो व्रत ते तिस व्रतसहित पुरुष प्रधान
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