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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५५३ ॥ हैं, मैथुनकर्मविर्षे यत्न करें हैं । तिन पापनिके अभावतें नरकआदिके दुःख अनेकप्रकार प्रवर्ते हैं । ___आगे, ऐसे उक्त अनुक्रमकरि हिंसादिविर्षे दोष देखनेवाला पुरुषकै अहिंसादिकवि गुणका निश्चय भया, तब अहिंसादिकविर्षे बडा यत्न करने लगा, ताकै अहिंसादि व्रत होय हैं, सो पुरुष कैसा है ऐसे सूत्र कहै हैं
॥निःशल्यो व्रती ॥१८॥ __याका अर्थ-मिथ्या माया निदान ए तीनि शल्य जाके न होय सो व्रती है । जो शृणाति कहिये घातै चुभै सो शल्य कहिये । सौ अर्थते शरीरकेविर्षे प्रवेश करै घसी जाय ऐसा शस्त्रविशेपकू शल्य कहिये । तिससारिखा चुभै मनविर्षे बाधा करै सोभी शल्यही कहिये । जाते कर्मके उदयतें भया जो मानसिक विकार सो प्राणीनिकू शरीरसंबंधी तथा मनसंबंधी बाधा करै सोभी शल्य है, ऐसा उपचारकरि नाम जानना । सो शल्य तीनिप्रकार है, मायाशल्य निदानशल्य मिथ्यादर्शनशल्य । तहां माया तो निकृतिकू कहिये, या ठिगनेके परिणामभी कहिये । बहुरि विषयभोग
निकी वांछाकू निदान कहिये । बहुरि अतत्त्वश्रद्धानकू मिथ्यादर्शन कहिये । इन तीनितें रहित || होय निःशल्य है सो व्रती है ऐसा कहिये है ॥
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