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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचदंकता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५५१ ॥ है। जातें तहां दूसरा रागपरिणामके विर्षे संकल्प है। जैसे काहूंकों भूत लागै तैसें इहां दूसरा काम है, तातें मैथुनशदकी सिद्धि है । आगें, पांचवां जो परिग्रह ताका कहा लक्षण है ऐसे पूछे सूत्र कहै हैं
॥ मूर्छा परिग्रहः ॥ १७॥ याका अर्थ- मूर्छा कहिये परविर्षे ममत्वपरिणाम सो परिप्रह है। तहां बाह्य जे गऊ भेंसि मणि मोती आदि चेतन अचेतन वस्तु अर अभ्यंतर जे राग आदिक ऐसे जे परिग्रह तिनकी | रक्षा करना उपार्जन करना संस्कार करना ऐसा जो व्यापार, सो मूर्छा है । इहां प्रश्न, जो, लोकविर्षे | वायु आदि रोगके प्रकोपतें अचेतन होय जाय ताकू मूर्छा कहै हैं, सो प्रसिद्ध है, सो तिस अर्थकू | ग्रहण काहे न कीजिये? ताका उत्तर. जो, यह तो सत्य है, लोकमें तिसहीकं मा कहै है।
परंतु यह मार्छि धात है सो मोहसामान्य अर्थविर्षे वत है, सो सामान्यकी प्रेरणा विषेश अर्थिविर्षे | है । ऐसें होतें विशेषका अर्थ इहां ग्रहण है । जातें इहां परिग्रहका प्रकरण है । इहां फेरि पूछे है, जो | ऐसें कहैभी बाह्य वस्तुकै परिग्रहपणा नाहीं ठहरैगा । जाते तुमनें अभ्यंतर जो मूर्छा है ताहीका ग्रहण कीया है । ताका समाधान, जो, सत्य है । प्रधानपणातें हमने अभ्यंतरकाही ग्रहण कीया ||
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