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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५४९॥ तिनका ग्रहण अदत्तादान ठहसा । ताका समाधान, जो, यह दोष इहां नाहीं । जातें इहां अदत्तशब्द कह्या है । ताका ऐसा अर्थ आवे है, जो, जिसवि देनलेनेका व्यवहार होय ऐसे धनादि | वस्तुतेंही अदत्त जानना, कर्मनोकर्मके ग्रहणविर्षे देनेलेनेका व्यवहार नाही, ते सूक्ष्म हैं अदृष्ट | हैं । बहुरि कहै, जो, ऐसभी यह प्रसंग आवै है, जो मुनि आहार लेने... जाय हैं, तब गली रस्ताके | दरवाजे आदि होय हैं, तिनमें प्रवेश करै है, सो विनादीये हैं, तिसमें स्तेयका दोष आया। ताकू कहिये, जो, यह दोषभी नाही, जातें गली रस्ताके दरवाजे आदि लोकनिने सामान्यपणे देय राखे हैं। कोई आवौ कोई जावी, तहां वर्जन नाहीं। याहीते मुनि हैं सो जहां द्वारके कपाट आदि जुडे होय तहां वर्जना होय तहां प्रवेश न करें हैं । अथवा प्रमत्तयोगकी अनुवृत्ति है । तातें गली आदिमें प्रवेश करते मुनिकें प्रमत्तयोग नाहीं है । तातें यह अर्थ है, जहां संक्लेशपरिणामकरि प्रवृत्ति होय तहां स्तेय कहिये । बाह्यवस्तुका ग्रहण होऊ तथा मति होऊ प्रमत्तयोगके होते स्तेय वणी रह्या है। आगे, चौथा अब्रह्मका लक्षण कहा है ऐसे पूछे सूत्र कहे हैं
॥ मैथुनमब्रह्म ॥१६॥
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