________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
SPARSHOPP
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५४७ ॥
दुःख होय है । याहीतें प्रमत्तयोग अरु प्राणव्यपरोपण दोऊनितें हिंसा होय है ॥
कोई ऐसें कहै है, जो, सर्वलोक प्राणीनितैं भन्या है । तातैं मुनि अहिंसक कैसें होय ? यह कहना निष्फल है । जातैं मुनिकै प्रमत्तयोग नाहीं है, तातैं तिनकै हिंसा नाहीं है । बहुरि सूक्ष्मजीव हैं ते तौ पीडेही न जाय हैं । बहुरि ते बादर रक्षायोग्य हैं, तिनका यत्न करही है । ता तिनकै हिंसा कैसे होय ? बहुरि जे सर्वथा एकान्तवादी हैं, तिनकै प्राणी प्राण, हिंस्य हिंसक हिंसा हिंसाफलका अस्तित्वही संभवै नांही । तिनका मत प्रमाणासिद्ध नाहीं है ॥
आगे पूछे है, हिंसा तो जैसा लक्षण कह्या तैसा जाणी । अब याके अनंतर कह्या जो अनृत, ताका लक्षण कहा? सो कहौ, ऐसें पूछें सूत्र कहें हैं
॥ असदभिधानमन्नृतम् ॥ १४ ॥
याका अर्थ- जो प्राणीनिकू पीडा करे ऐसा अप्रशस्त बुरा वचन, ताका कहना, सो अनृत है । इहां सत्शब्द प्रशंसावाची है, ताका निषेध सो असत् अप्रशस्त ऐसा कहिये । सो ऐसें असत् अर्थका कहना सो अनृत है । ऋत कहिये सत्य, ऋत नाहीं सो अनृत है । तहां जो प्राणी
For Private and Personal Use Only