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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५५०॥ याका अर्थ- मैथुन कहिये कामसेवन सो अब्रह्म है। तहां स्त्रीपुरुष चारित्रमोहके उदयकू होते रागपरिणामकरि सहित होय तब तिनके परस्पर स्पर्शनकी इच्छा होय, सो मैथुन है, तिसका भाव तथा कार्यका नाम मैथुन है। जातें लोकवि तथा शास्त्रविर्षे तैसेंही प्रसिद्ध हैं। लोकविर्षे तौ बालगोपाल स्त्री सर्व जानें हैं, जो, स्त्रीपुरुषकै रागपरिणामतें चेष्टा होय सो मैथुन है । बहुरि शास्त्रविर्षेभी घोडे वलधके मैथुनकी इच्छाविर्षे इत्यादिक पाठ हैं, तहां मैथुनका ग्रहण कीजिये है। बहुरि इहां प्रमत्तयोगकी अनुवृत्ति है, ताकरिभी स्त्रीपुरुषका युगलसंबंधी रतिसुखके अर्थि चेष्टा होइ सोही मैथुन ग्रहण कीजिये है। सर्वही कार्यमें मैथुन नाहीं । बहुरि जाके पालते संते अहिंसादिक गुण वृद्धिकू प्राप्त होय सो ब्रह्म है, जो ब्रह्म नाहीं सो अब्रह्म है । सो ऐसा अब्रह्म | मैथुन है । इस मैथुनतें हिंसादिक दोष हैं ते पुष्ट होय हैं । जातें मैथुन सेवनेविर्षे जो पुरुष तत्पर
है सो थावर त्रस प्राणीनिकू हणे है, झूठ बचन बोले है, चोरी करै है, चेतन अचेतन परिग्रहका | ग्रहण करै है, ऐसें जानना । इहां ऐसे कहनेतें स्त्रीपुरुष रागपरिणामविना अन्य कोई कार्य करे,
सो मैथुन नाहीं । तथा दोय पुरुष कोई कामसेवनविना अन्य कार्य करै सो मैथुन नाहीं, ऐसा ६ सिद्ध होय है । तथा कामसेवनके परिणामतें एकही पुरुष जो हस्तादिकतें चेष्टा करै सोभी मैथुन
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