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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५४५ ॥ | ताके पगतलै कर्मका प्रेखा जीव आय पऱ्या मरि गया, तो तिस कारणकरि तिस मुनिकै सूक्ष्मभी | किंचिन्मात्रभी बंध नाहीं है, ऐसे सिद्धांतमें कह्या है । बहुरि अध्यात्मप्रमाणतें ऐसा कह्या है, जो, | मूर्छा है सोही परिग्रह है, अन्य नाही ॥
इहां कोई तर्क करै है, जो, प्राणनिका वियोग कियेविनाभी प्रमत्तयोगमात्रहीतें हिंसा मानिये | है। जैसे सिद्धान्तकी उक्तं च गाथा है, ताका अर्थ- जो अयत्नाचार प्रवर्ते है, ताकी प्रवृत्ति में जीव मरौ अथवा न मरौ ताकै हिंसा निश्चयतें होय है । अर जो यत्नसहित प्रवर्ते है-समितिसहित | है, ताका हिंसामात्रहीकरि बंध नाहीं है। तहां आचार्य कहै हैं, यह दोष नाहीं है । जातें जो अयत्नाचार प्रवर्ते है, ताकै केवल प्रमत्तयोगही नाहीं है, तहां भावप्राणनिका व्यपरोपणभी है। तैसेंही कह्या है उक्तं च श्लोक, ताका अर्थ-प्रमादवान आत्मा है, सो पहले तो अपने आत्माकू आपकार आप हणे है, पीछे अन्य प्राणीनिका घात होऊ तथा मति होऊ। तातै प्रमादवानके प्राणव्यपरोपणभी अवश्य जानना ।।
___इहां विशेष जो, वार्तिकमें ऐसा अर्थ है, इन्द्रियानिका प्रचारका विशेष अपनी सावधानीविना | होय सो प्रमत्त कहिये अथवा प्रमत्तकीज्यों होय सो प्रमत्त है । इहां उपमाका वाचक इवशब्दका
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