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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदकता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५४४ ॥
|| निविर्षे राग न होनेते वैराग्य उपजै है। यातें जगत् अर कायका स्वभावकी भावना करनी ॥
आगें पूछे, जो, हिंसादिकतें विरति सो व्रत है। तहां हम न जानी, ते हिंसादिक क्रिया कहां हैं ? तहां आचार्य कहै हैं, ते. युगपत तो कहे जाय नाहीं । तातें तिनका स्वरूप कहना अनुक्रमतें है । तहां जो आदिविर्षे कही हिंसा, ताका लक्षणसूत्र कहै हैं
॥प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥ १३ ॥ याका अर्थ- प्रमत्तयोगते प्राणनिका वियोग करना, सो हिंसा है। तहां कषायसहितपणा सो तौ प्रमाद है । तिस प्रमादसहित आत्माका परिणाम सो प्रमत्त है। प्रमत्तका योग सो प्रमत्तयोग कहिये । बहुरि इन्द्रियनिकू आदि देकरि दश प्राण हैं, तिनका यथासंभव वियोग करना, सो व्यपरोपण है । ऐसें प्रमत्तयोगते प्राणव्यपरोपण है, सोही हिंसा है । सो यऊ हिंसा प्राणीनिके दुःखका कारण है, तातें याकू अधर्मका कारण कहिये । इहां प्रमत्तयोग ऐसा विशेषणतें ऐसा जानना, जो, केवल प्राणनिके वियोग कारणमात्रपणाही अधर्मके अर्थि नाहीं है ॥ इहां उक्तं च
अर्द्ध श्लोक है, ताका अर्थ-प्राणनितें प्राणीनिकू न्यारा करै है अर हिंसाकरि युक्त न होय है । हैं तथा दूसरा उक्तं च गाथा है, ताका अर्थ- कोई मुनि ईर्यासमितिकरि गमन करतें पग उठावै था,
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