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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५४६॥
प्रत्ययार्थमें लोप है । सो उपमाका अर्थ ऐसा, जैसे दारूका पीवनेवाला मतवाला होय तब कार्यअकार्यका जाकै विचार न होय, ताकी उपमा है । तथा जीवनिकै स्थान तथा तिनके उपजनेके ठिकाने तथा जीवनिके आधार जानें नाहीं, कषायनिके उदयकरि वेखवरि होय हिंसाके कारणनिविर्षे स्थिति करै, सामान्यहिंसाका यत्न न करै, सो प्रमत्त है। अथवा पंदरह प्रमादरूप परिणया होय, सो प्रमत्त है । बहुरि योगशद है सो सम्बन्धार्थस्वरूप है । अथवा मनवचनकायकी कियाकुंभी योग कहिये । सो प्रमत्तका योग सो प्रमत्तयोग कहिये । सो हेतुरूप कह्या है । इस हेतुतें प्राणनिका व्यपरोपण होय सो हिंसा है ॥
बहुरि प्राणके ग्रहण करने” प्राणीका ग्रहण जानना । प्राणनिके वियोगते प्राणीका वियोग होय है. अन्य न्यारा प्राणीके अवयव नाहीं ताका वियोग कैसे संभवै ? ताका समाधान, जो, ऐसें नाहीं । प्राणनिके घात” प्राणीकै दुःख उपजै है । तातें अधर्म होय है। तहां फेरि कहै,
जो, प्राणनिके घाततै प्राणीकै दुःख नाहीं होय है । ताकू कहिये, जो, पुत्र कलत्र आदिका | वियोग होतेही प्राणीकै दुःख होय है । तौ शरीर तौ अत्यंत निक-वर्ती है, याका वियोगमें दुःख न कैसें न होय ? बहुरि शरीर जीव तौ कर्मबंध अपेक्षा एकही होय रहै हैं, याके वियोगमें अवश्य |
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