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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५४२ ॥
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आगे फेरिभी भावना अर्थि आगें सूत्र कहै हैं
॥ मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु ॥ ११॥ याका अर्थ - प्राणीनिर्विषै तौ मैत्री, अर गुणाधिकविषै प्रमोद, तथा दुःखी पीडितविषै करुणा, तथा प्रतिकूलविषै मध्यस्थपरिणाम ऐसें ये व्यारिनिविषै च्यारि भावना राखणी । तथा परके दुःख न होनेका आभिलाष, सो तौ मैत्री कहिये । बहुरिं वचनकार तथा प्रसन्नताकरि प्रगट होय ऐसा अंतरंगविषै भक्तिका अनुराग, सो प्रमोद कहिये । बहुरि दीनकेविषै उपकार करनेका भाव, सो कारुण्य कहिये । बहुरि रागद्वेषकरि पक्षपात होय है ताका अभाव, सो माध्यस्थ कहिये । बहुरि पापकर्मके उदय के वश अनेकयोनिविषै कष्ट भोगवै ते सत्व कहिये, तिनकूं जीव कहिये । बहु सम्यग्ज्ञान आदि गुणनिकरि बडे होय ते गुणाधिक कहिये | असातावेदनीयके उदयतें जिनके क्लेश उपजै, ते क्लिश्यमान हैं । बहुरि तत्वार्थके सुननेकरि ग्रहण करनेकरि अभ्यासकरि जिननें गुण न पाये ते अविनेय कहिये । इन सत्वादिक व्यारिनिविषै यथासंख्य मैत्री आदि व्याखौं भावना भावणी | सर्वजीवनितें मेरी क्षमा है । ते सर्व मेरेपरि क्षमा करौ । मेरी सर्वतें प्रीति है - वैर काहुतें नाहीं है । ऐसें सर्वप्राणी जीवनिविषै तो मैत्रभावना भावणी । सम्यग्ज्ञानचारिवादिककेविषै वंदना
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