________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५४० ॥
लोक कहें 'बडा लोभी है' ऐसें निंदनीक होय है। तातें परिग्रहका त्याग कल्याणकारी है ऐसी भावना राखणी ॥ ऐसें हिंसादिक पंचपापनिविर्षे ऐसी भावना करणी ॥ आगें, इन हिंसादिकनिविर्षे अन्यभावना राखणी, ताके कहनेकू सूत्र कहै हैं--
॥दुःखमेव वा ॥ १०॥ ___ याका अर्थ-- हिंसा आदि पंच पाप हैं, ते दुःखरूपही हैं, ऐसी भावना राखणी । इहां पूछ हैं, हिंसादिक दुःख कैसे हैं ? ताका समाधान, जातें ए हिंसादिक हैं ते दुःखके कारण हैं । जैसे अन्न है सो प्राणनिकी रक्षा करै है, ताते कारण हैं। तहां कहिये, अन्न है सोही प्राण है, ऐसें कारणकू कार्य कहना । तैसें हिंसादिक दुःखके कारण हैं, तिनकं दःखही है ऐसें कहना । इहां कारणविर्षे कार्यका उपचार है। बहुरि कारणका कारण होय ताकुंभी कार्यही कहिये है। जैसे अन्न तौ प्राणका कारण अरु धन है सो अन्नपानका कारण है। तहां धन है सोही प्राण है, ऐसे कहते कारणके कारणविर्षे कार्यका उपचार होय है; तैसें हिंसादिक कहै ते असातावेदनीय आदि अशुभकर्मके कारण हैं । बहुरि असातावेदनीयआदि कर्म दुःखके कारण हैं। ऐसें दुःखके कारणविर्षे तथा दुःखके कारणके कारणविर्षे दुःखका उपचार जानना । सो ए हिंसादिक पाप दुःखही हैं, ऐसी भावना राखणी ॥
For Private and Personal Use Only