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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५३८ ।। है । प्रथम तौ हिंसाविर्षे देखौ, जो, हिंसक जीव होय सो निरंतर सर्वका वैरी शत्रु है । ता• सर्व पीड्या चाहें मास्या चाहैं । इस लोकविर्षे अनेक वध बंधन क्लेशादिक पावें हैं। परलोकविर्षे अशुभगति पावै है । बहुरि सर्वकरि निंदनीक होय है । तातै हिंसाका त्याग करना कल्याणकारी है, ऐसी भावना राखणी ॥
तैसेंही असत्यवचनका बोलनेवाला सर्वकै अश्रद्धेय होय जाका वचन कोई श्रद्धान न करै सांच न मानें । बहुरि इसही लोकमें जीव काटना आदि दुःख• पावै है । ताके झूठवचनकरि दुःखी होय ते वैरकरि अनेक कष्ट दे, सो सहने होय | बहुरि परलोकविर्षे दुर्गति पावै है । बहुरि निंदनीक होय है। तातें अनृतवचन" विरमण करना कल्याणकारी है, ऐसी भावना राखणी ॥ तैसेंही परद्रव्यका हरणहारा चोर है सो सर्वकै पीडा देनेयोग्य होय है जाका कोई रक्षक न होय । इसही लोकमें घात होना, वध, बंधन, हाथ पग कान नांक उपरले होठका छेदन, भेदन, सर्व धनादिका लूटि लेना इत्यादिक दुःख पावै है । बहुरि परलोकविर्षे अशुभगति पावै | है। बहुरि निंदनीक होय है। यातें चोरी करनेका त्याग करना कल्याणकारी है, ऐसी भावना राखणी।।
तैसेंही अब्रह्मचारी मदविभ्रमकरि उद्धांत है चित्त जाका सो कपटकी हथणीके आर्थि
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