SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 556
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir utpreratorreranbirtupertseexisasteracterials ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५३८ ।। है । प्रथम तौ हिंसाविर्षे देखौ, जो, हिंसक जीव होय सो निरंतर सर्वका वैरी शत्रु है । ता• सर्व पीड्या चाहें मास्या चाहैं । इस लोकविर्षे अनेक वध बंधन क्लेशादिक पावें हैं। परलोकविर्षे अशुभगति पावै है । बहुरि सर्वकरि निंदनीक होय है । तातै हिंसाका त्याग करना कल्याणकारी है, ऐसी भावना राखणी ॥ तैसेंही असत्यवचनका बोलनेवाला सर्वकै अश्रद्धेय होय जाका वचन कोई श्रद्धान न करै सांच न मानें । बहुरि इसही लोकमें जीव काटना आदि दुःख• पावै है । ताके झूठवचनकरि दुःखी होय ते वैरकरि अनेक कष्ट दे, सो सहने होय | बहुरि परलोकविर्षे दुर्गति पावै है । बहुरि निंदनीक होय है। तातें अनृतवचन" विरमण करना कल्याणकारी है, ऐसी भावना राखणी ॥ तैसेंही परद्रव्यका हरणहारा चोर है सो सर्वकै पीडा देनेयोग्य होय है जाका कोई रक्षक न होय । इसही लोकमें घात होना, वध, बंधन, हाथ पग कान नांक उपरले होठका छेदन, भेदन, सर्व धनादिका लूटि लेना इत्यादिक दुःख पावै है । बहुरि परलोकविर्षे अशुभगति पावै | है। बहुरि निंदनीक होय है। यातें चोरी करनेका त्याग करना कल्याणकारी है, ऐसी भावना राखणी।। तैसेंही अब्रह्मचारी मदविभ्रमकरि उद्धांत है चित्त जाका सो कपटकी हथणीके आर्थि For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy