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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५३७ ॥ | व्रतकी जाननीं ॥ भावार्थ ऐसा, जो, परिग्रह हैं ते इन्द्रियनिके विषयके सेवनेके तथा कषाय पोषनके अर्थि हैं, तातें विषयकषायका गुणदोष विचारिकरि भावना राखे, परिग्रहत्यागवत दृढ रहै है।
आगें किछु और कहै हैं, कि, जैसे इन व्रतनिकी दृढताके अर्थि व्रतनिका खरूप जानने वाला ज्ञानीनिकरि भावनाका उपदेश कीया है, तैसैंही तिन व्रतनिके विरोधी जे पांच पाप | तिनविभी भावना राखणी। तिनके दोषनिका बारबार चितवन राखणां । तातें दृढ व्रत रहै है। ताका सूत्र कहै हैं
॥ हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥९॥ याका अर्थ- हिंसादिक पांचपापनिविर्षे इस लोकविर्षे तो अपाय कहिये नाश तथा भय होय है । बहुरि परलोकविर्षे पापते दुर्गति होय है। ऐसा देखना बारबार विचारणा । तहां अभ्युदय कहिये स्वर्गादिककी संपदा पावना निःश्रेयस कहिये कल्याणरूप मोक्ष तिनके अर्थि जो किया ताका नाश करनेवाला जो प्रयोग आरंभ, सो तो अपाय कहिये । अथवा सात भयकूभी अपाय
कहिये । अवद्य कहिये गर्दा निंद्य पाप इन दोऊनिळू देखनें विचारनें । कहां देखने? इस | लोकविर्षे तथा परलोकवि । बहुरि कोनवि देखने ? इन पांच पापनिविर्षे । सो कैसे सो कहिये
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