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॥ सर्वासिद्धिवचनका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ४९३ ॥ याका अर्थ
निर्वर्तना निक्षेप संयोग निसर्ग ये च्यारि । तहां निर्वर्तनाके भेद दोय, निक्षेपके च्यारि भेद, संयोगके दोय भेद, निसर्गके तीनि भेद । ए अजीवाधिकरण हैं, ते संरंभादिकर्ते परं कहिये अन्य हैं | तहां जो निपजाईये सो निर्वर्तना है । बहुरि जो निक्षेपणा करिये धरिये सो निक्षेप है । बहुरि जो संयोजन करिये मिलाईये सो संयोग है । बहुरि जो निसर्जन करिये प्रवर्ताईए सो निसर्ग है । इनका दोय आदि संख्यातें अनुक्रमतें संबंध करिये। निर्वर्तनाके दोय भेद, निक्षेपके च्यारि भेद संयोगके दोय भेद, निसर्ग के तीनि भेद ए अजीवाधिकरण के भेद हैं। इहां सूत्र में परवचन है, ताका अन्य ऐसा अर्थ लेणा । ए संरंभादिक जीवाधिकरण कहे तिनतें अन्य हैं। जो ऐसा न लीजिये तौ निर्वर्तना आदि जीवहीके परिणाम हैं । तातें जीवाधिकरणही ठहरै । तहां निर्वर्तना अधिकरण दोय. प्रकार है । मूलगुणनिर्वर्तना उत्तरगुण निर्वर्तना । तहां मूल पांचप्रकार, शरीर वचन मन उच्छ्वास निश्वास ऐसें इनका निपजावना | बहुरि उत्तर काष्ठ पुस्त चित्रकर्म इत्यादि इनका निपजावना ॥
बहुरि निक्षेप च्यारिप्रकार । तहां अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण कहिये विना देख्या वस्तु निक्षेपणा स्थापना । दुःप्रसृष्टनिक्षेपाधिकरण कहिये पृथ्वी आदिक बुरीतरह बुहारे मर्दन किये वस्तु धरना । सहसा निक्षेपाधिकरण कहिये शीघ्र वस्तु धरना पटकि देणां । अनाभोगनिक्षेपाधिकरण कहिये वस्तु
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