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॥ सर्वार्थसिद्धिषचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५३२ ॥ आगें अहिंसाव्रतकी भावना , कहेंगे तहां आलोकितपानभोजनभावना कही है तामें गर्भित जानना । इहां विशेष कहिये है, जो, भावनावि आलोकितपानभोजन करना कह्या, सो तहां दीपगका तथा चन्द्रमाका प्रकाशवि देखिकरि भोजन कीजिये तो कहा दोष? ऐसें कोई कहै, सो यह युक्त नाहीं । दीपकआदिके प्रकाशविर्षेभी रात्रिभोजन करने में अनेक आरंभके दोष आवै हैं । सो फेरि कहै, जो, पैला कोई दीपकआदिका प्रकाश करि दे तब आरंभका दोष नाहीं होय । ताकू कहिये, जो, आचारसूत्रका ऐसा उपदेश है, जो, अपना ज्ञानसूर्य अपनी इन्द्रिय | निकरि देखे मार्गविर्षे तथा पहले देश काल विचारि जूडा प्रमाण अगिली पिछली भूमि विहारभ्रमणकरि साधु शुद्धभिक्षा ग्रहण करै है, सो ऐसी विधि रात्रिभोजन करनेमें वणे नाहीं॥
फेरि कहैं, जो, दिनविर्षे भोजन ले आवै ताकू रात्रिमें खाय तो कहा दोष? ताकू कहिये , पूर्वोक्त दीपकआदि आरंभका दोष है । तथा ल्यायकरि भोजन खाना यह संयमका साधन नाहीं । बहुरि सर्व परिग्रहरहितमुनिक पाणिपात्र आहार है। सो ल्याय खाना वणें नाहीं। पात्रका संग्रह करै तौ अनेकदोष उपजे हैं, तथा दीनआचरणका प्रसंग आवै है, निवृत्तिपरिणाम न होय है । फेरि कहै, पात्रमें ल्याये परीक्षाकरि भोजन संभव है। तहां कहिये ऐसा नाहीं। जे मुनि जीवनिके
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