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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय || पान ५३३ ||
ठिकाने शास्त्रोक्त जानें हैं तिनकूं संयोगविभाग गुणदोषका ज्ञान है, तिनकै तत्कालही भोजन बर्णे हैं, ल्यायकरि खानेमें अनेक दोष दीखें हैं । ताका विसर्जन करै तौ तामें अनेकदोष उपजे हैं । तातें सूर्य के प्रकाशमें प्रगट देखि दिनमेंही भोजन करना युक्त है । जैसें सूर्य के प्रकाशमें प्रगट भूमि देश दातार जन गमन आदि तथा अन्नपान डाला स्पष्ट दीखै; तैमैं चंद्रमाआदिका प्रकाशतें नाहीं दीखै ऐसा जानना ॥
आगे तिस पांच व्रतनिके भेद जाननेकूं सूत्र कहै हैं
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॥देशसर्वतोऽणुमहती ॥ २ ॥
याका अर्थ - ए पांचूही व्रत जब एकदेश होय तब तौ अणुव्रत कहिये । बहुरि सकल होय तब महाव्रत कहिये । इहां देश ऐसा तौ एकदेशकूं कहना । सर्व सकलकूं कहना । तिन देश विरति होय सो देशव्रत अणुव्रत है, सकलवत महावत है, ऐसे दोय भेद भये । वितिशब्दकी अनुवृत्ति ऊपरले सूत्र लेणी । ए दोऊ प्रकार व्रत न्यारे न्यारे भावनारूप किये संते श्रेष्ठ औषधकीज्यों दुःख दूर करने के कारण होय हैं ।
आगे पूछें, तिन व्रतनिकी भावना कौनअर्थि है? तथा कौंनप्रकार है सो कहौ ऐसें पूछें सूत्र कहैं हैं
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