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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५३१ ॥ इहां विरतिशब्द प्रत्येककै लगावणा, हिंसा विरति, अनृततें विरति इत्यादि । तहां आहिंसाव्रत | प्रधान है, तातें आदिविर्षे कह्या सत्य आदि व्रत हैं ते अहिंसाकी रक्षाके अर्थि हैं । जैसें धान्यका
खेतकी रक्षाके अर्थि बाडि कीजिये है तैसें है। सर्वसावद्ययोगकी निवृत्ति है लक्षण जाका ऐसा सामायिक एकही व्रत है, सोही छेदोपस्थापनकी अपेक्षाकरि पांचप्रकारका है, सो इहां कहिये है । बहुरि तर्क, जो, व्रतकै आश्रवका कारणपणां कहना अयुक्त है । जाते व्रत का संवरके कारणविर्षे | अंतर्भाव है, संवरके कारण आगे गुप्तिसमित्यादिक कहियेगा तहां दशप्रकारधर्मवि तथा संयमविर्षे अन्तर्भाव कीया है । ताका समाधान कहै हैं, जो, यह दोष नाही हे । संघर तो निवृतिस्वरूप आगे कहसी । इहां आश्रवअधिकारमें प्रवृत्तिस्वरूप कही है, सो हिंसा अन्त अदत्तादान आदिका त्याग होतें अहिंसा सत्यवचन दत्तादान आदि क्रियाकी प्रवृत्ति है, सो प्रतीनिसिद्ध है। बहुरि गुप्त्यादिकरूप जो संवर ताका परिवार व्रत है। व्रतनिविर्षे प्रवृत्ति करनेवाला साधुकै संवर सुखतें होय है । तातें न्यारा पण करि उपदेश कीजिये है ॥
___बहुरि तर्क, जो, छठा अणुव्रत रात्रिभोजनका त्याग करना है, सोमी इहां गणनामें लेना | चाहिये । आचार्य कहे हैं, इहां न चाहिये । जाते याका अहिंस.व्रतकी भावनाविर्षे अंतर्भाव है, |
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