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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । सप्तम अध्याय ॥ पान ५२९ ॥
॥ नमः सिद्धेभ्यः ।। ॥ आगें सातमा अध्यायका प्रारम्भ है ॥
W0cecoदोहा- आठ कर्म आश्रववि, पुण्यपापको भेद ॥
जानि जिनेश्वर भाषियो, नमूं देव निरखेद ॥१॥ ऐसें मंगलाचरणके अर्थि भगवानकू नमस्कार करि सातमा अध्यायकी वनिका लिखिये है। तहां सर्वार्थसिद्धि नामा टीकाकारके वचन हैं, जो, आश्रवपदार्थका व्याख्यान कीया, ताके प्रारंभमें ऐसा कह्या था, जो, शुभयोग पुण्यकर्मका आश्रव है, सो यह तो सामान्यकरि कह्या, ताका विशेष न जाण्यां, जो, शुभ कहा है ? सो अब ताके जाननेकू सूत्र कहै हैं
॥ हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥ याका अर्थ- हिंसा अन्त स्तेय अब्रह्म परिग्रह ए पांच पाप हैं। तिनतें विरति कहिये निवृत्ति होना सो व्रत है। तहां प्रमत्तयोगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा इत्यादि सूत्रनिकरि आगे
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