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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५३० ॥
हिंसादिक कहेंगे, तिनतें विरमण करना, सो व्रत ऐसें कहिये । तहां यऊ करना यऊ न करना ऐसा अभिप्रायकर कीया जो नियम ताकूं व्रत कहिये । इहां तर्क, जो, हिंसादिक तौ परिणाम के विशेष हैं, ते अध्रुव हैं, तिनकूं पंचमीविभक्तिकरि अपादान कहै, सो अपादान तो ध्रुव होय है । अध्रुव अपादानपणां कैमैं बणे ? ताका समाधान, जैनेन्द्रव्याकरणमें अपादानका लक्षण ऐसा
ध्याये ध्रुवमपादानम् । याका अर्थ कहैं हैं, जो बुद्धिका नाश होनें ध्रुव रहै, सो अपादान है । सो ऐसें ध्रुवपणांकी विवक्षा वर्णे है, ऐसा कया है । धर्माद्विरमति ऐसें कहते जो यऊ मनुष्य विचारसंहित है बुद्धि जाकी सो विचारे है, धर्म है सो दुष्कर है याका करना कठिन है, बहुरि याका फल प्रत्यक्ष नाहीं, श्रद्धामात्र जान्या है ऐसें बुद्धिकरि ग्रहणकरि ताकूं छोडे है, ऐसें इहांभी जानना | जो परीक्षावान् मनुष्य है, सो विचारै है ये हिंसादिक परिणाम हैं ते पापके कारण हैं, जो इन पापनिवि प्रवर्ते है तिनकूं इमही लोकविषै राजा दंड दे है, बहुरि परलोकषिषै दुःख कूं प्राप्त होय है ऐसें बुद्धिकरि ग्रहणकरि तिनतैं निवृत्ति होय है, तातें बुद्धि के अपायकी अपेक्षाकरि ध्रुवपणाकी विवक्षा व है । ए हिंसापदार्थ तो ध्रुवही हैं । इनका ज्ञान बुद्धिमें रही है । त्यागग्रहण बुद्धि होय है ताकी अपेक्षा है, यातें अपादानपणां युक्त है ॥
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