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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। षष्ठ अध्याय ॥ पान ५०३ ॥ धरी वस्तुकू छिपावना इत्यादि अनेकप्रकार हैं, तिनका न करना सो शौच है । बहुरि इतिशब्द || इहां प्रकारअर्थमें है, ताकरि अरहंतकी पूजा करवाविषं तत्परपणा तथा बाल वृद्ध तपस्वी मुनिनिका
वैयावृत्य करना इत्यादिक लेणा । इहां प्रश्न, जो, भूतके कहनेते प्राणिमात्र तो आयही गये, फेरि व्रतीका ग्रहण काहेकू किया? ताका समाधान, जो, व्रतीकेवि अनुकंपाका प्रधानपणां जनावनके अर्थि फेरि व्रतीका ग्रहण है। प्राणीनिकेविर्षे तो सामान्यपणे होयही परंतु व्रतीनिकेविर्षे विशेषकरि होय । जैसे बड़े आदमीकै हरेकसूं प्रीति होय है, परंतु अपना जिनतें प्रयोजन सधता होय ऐसे
कुटंब आदिक तिन” विशेषकरि होय; तैसें इहांभी जानना । ऐसें एते सातावेदनीयके आश्रवके | कारण जानने । ऐसें ए परिणाम सर्वथा एकान्तवादी आत्माकू नित्यही मानें तथा अनित्यही मानें । | हैं तिनके मतमें सिद्ध नाहीं होय हैं । जातें सर्वथा नित्यकै तौ परिणाम पलटेही नाहीं । बहुरि सर्वथा
अनित्यक पूर्वापरका जोड नाहीं । तातें कैसे बनें ? ___आगे तिस वेदनीयक अनंतर कह्या जो मोहनीयकर्म ताके आश्रवके भेद कहनेयोग्य हैं । तातें ताका भेद जो दर्शनमोह, ताके आश्रवके भेद कहनेकू सूत्र कहैं हैं
॥ केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥ १३ ॥
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