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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५२४ ॥
कहां? अपनी तो निंदा, अर परकी प्रशंसा, अपना गुण प्रगट न कहना, परका गुण प्रगट कहना बहुरि गुणनिकरि उत्कृष्ट होय महान् होय तिनविर्षे विनयकरि नभ्रीभृत रहना, सो नीचैवृत्ति कहिये । बहुरि आपमें विज्ञानआदि अनेक गुण विद्यमान हैं, उत्कृष्टपणा है, तोऊ तिन गुणनिका मद न करै, अहंकाररहित होय, सो अनुत्सेक कहिये । ते ए उत्तर कहता दूसरा गोत्रकर्म उच्चगोत्र ताके आश्रव हैं। इहां विस्तारकाभी विपर्यय कहना। तहां जातिआदि आठ मद न करने, परकी निंदा न करनी, उद्धत न प्रवर्तना, परका उपहास अपवाद न करना, मानकषाय तीव्र न राखणा, पूज्यपुरुषकी पूजा विनय सत्कार वंदना करनी, बहुरि इस निकृष्टकालमें कोईमें भले गुण होय 'जैसे हरेकमें न पाईय' तिनतेंभी उद्धत न रहना, सोभी नीचैर्वृत्ति है । बहुरि अपना माहात्म्यका प्रकाशन आप न चाहै, तथा धमके कारणनिविष बड़ा आदर करै इत्यादि जानना ॥ आगे, गोत्रकर्मके अनंतर कह्या जो अंतरायकर्म, ताका आश्रव कहा है? एसैं प सत्र कहे हैं
॥ विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥२८॥ याका अर्थ- दानआदिके विर्षे विघ्न करना, सो अंतरायकर्मका आश्रव है। तहां दान || आदि तो पहले कहे तेही, दान लाभ भोगोपभोग वीर्य ए । तिनिका हनना घात करना बिगाडना
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