________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । पष्ठ अध्याय ॥ पान ५२६ ॥ मदिराका पीवनेवाला अपनीही रुचितें मोहविभ्रमके करनहारी मदिराकू पीयकरि ताके परिपाकके वशिकरि उपजे विकारकू भोगवै है, तथा रोगी भोजन कुपथ्यकरि अनेक वात आदिविकारकू भोगवै तैसें जानना॥
___ इहां तर्क, जो तत् प्रदोषनिह्नव आदि ज्ञानावरण आदि सर्वकर्मनिके आश्रवके कारण | जुदेजुदे कहे, ते नियमकरि न्यारेन्यारेही हैं, कि अविशेषकरि हैं ? सर्वते सर्वकर्मका आश्रव होय है । तहां जो कहोगे नियमकरि कहते न्यारेन्यारेही ज्ञानावरण आदिका आश्रवका कारण हैं, तो | ऐसें तो आगमतें विरोध आवेगा, आगममें ऐसें कह्या, जो, आयुकर्मविना सातकर्म समयसमयप्रति निरंतर आश्रव होय बंधै हैं, तिसतें विरोध आवैगा, अरु जो कहोगे अविशेषकरि सर्वका सर्वत होय है, तौ विशेषकारण कहना अयुक्त होयगा। ताका समाधान, जो, तत्प्रदोष आदिकरि ज्ञाना वरण आदि सर्व कर्मप्रकृतिनिका प्रदेशबंधका तौ नियम नाहीं है, सर्वते सर्वका होय है, तोऊ अनुभागका विशेषका नियमका कारणपणाकरि तत्प्रदोषनिहवादिकभेदरूप कीजये ॥
इहां विशेष जो, अन्यमती कोई कहै, आश्रवके नियम कहे, तिनका किछु हेतु तो कह्या | नाही, विनाहेतु पंडित कैसें मानें ? ताका समाधान, जो, शास्त्र तो वस्तुका स्वभावकू कहै है । |
For Private and Personal Use Only