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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५२२ ॥
| तथा महोपवासआदिस्वरूप जाकरि इन्द्रकाभी आसन कंपायमान होय ऐसा तपकरि तथा जिनका |
पूजन जाकरि भव्यजीवरूप कमलनिका वन प्रफुल्लित होय तैसी सूर्यकी प्रभासारिखी इत्यादिकरि मार्गकी प्रभावना करनी ॥ १५॥ गऊका वत्सवि. स्नेह होय, ताकू न दीखै. तब चित्तविर्षे तिसहीका स्मरण रहै, तैसें सामिविर्षे अकृत्रिम स्नेह होय, सो प्रवचनवत्सलत्व है ॥ १६ ॥ ऐसें ए सोलह भावना भलेपकार भाये हुते समस्तही तथा व्यस्त कहिये जुदे जुदेभी सम्यग्दर्शनकी शुद्धतासहित तीर्थकरनामके आश्रव हैं ॥
आगें नामकर्मका आश्रवका कथनकै अनंतर गोत्रकर्मके आश्रवके कारण कहने हैं, तहां नीचगोत्रका आश्रय कहनेकू सूत्र कहें हैं
॥ परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥ २५॥
याका अर्थ- परकी निन्दा करनी, अपनी प्रशंसा करनी, परके छते गुण निषेध करने | अपने अनछते गुण प्रगट करने इन भावनितें नीचगोत्रका आश्रव होय है। तहां सांचे तथा झूठे दोषनिके कहनेविर्षे इच्छा करणी सो तौ निंदा कहिये । तैसेही सांचे तथा झूठे गुणनिके कहनेविर्षे इच्छा सो प्रशंसा कहिये । तिनका यथासंख्य संबंध करना परकी निंदा करनी, अपनी प्रशंसा
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