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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५२३ ॥
करनी | बहुरि वस्तु रोकनेवाला कारणके निकट होतें प्रगट होना, सो उच्छादन कहिये । बहुरि रोकनेवाला कारणका अभाव होय, तब प्रगट होना उद्भावन है । इहांभी यथासंख्य सम्बन्ध करना परके सांचे भी गुण होय तौ तिनकूं प्रगट न करना, अपने झूठे गुणनिका प्रगट करना । ए सर्व नीच गोलके आश्रवके कारण हैं । इहां विशेष जो, जाकरि आत्मा नीचस्थान पावै, सो नीचगोत्र है तिसके आश्रव कहे । तिनका विस्तार ऐसा, जाति आदि आठ मदका करना, परकी निंदातें हर्ष मानना, परका अपवाद करनेहीका स्वभाव राखनां धर्मात्माकी निन्दा करनी, परका यश न सुहावना, गुरुनिका अपमान करना, तिनके दोष कहने, तिनतैं विनयादिकरूप न प्रवर्तना इत्यादि जानना ॥
आगें, उच्चगोत्रकर्मका आश्रवकी विधि कहा है ? ऐसें पूछें सूत्र कहैं हैं - ॥ तद्विपर्य्ययौ नीचैर्वृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥ २६ ॥
याका अर्थ - नीचगोत्रका आश्रव कह्या । तातें विपर्यय उलटा तथा नीचा होय प्रवर्तना, उद्धत होय न प्रवर्तना ए उच्चगोत्रके आश्रव हैं। तहां तत्शब्दकरि तौ नीचगोत्रका आश्रव लेणा । जातें इस सूत्र के पहले लगता सोही है । तिसतें अन्यप्रकार है सो विपर्यय है । सो
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